|
मृत्यु का भय और उस पर विजय प्राप्त करने के चार साधन
सामान्यत: मानव-प्रगति को रोकनेवाली सबसे बढ़ी बाधा शायद भय है; भय के रूप विविध तथा असंख्य होते हैं, वह अपने-आपमें विरोधयुक्त, तर्कहीन, अनुचित और प्रायः बुद्धि से विपरीत होता हैं । मृत्यु का भय सब प्रकार के भयों मे सबसे अधिक सूक्ष्म और हठी होता हैं । उसकी जड़ें अचेतना तक में गहरी पैठ होती हैं और वहां से उन्हें उखाड़ फेंकना आसान नहीं होता । प्रत्यक्ष हीं यह भय कई मिश्रित तत्त्वों से बना होता है; ये चीजें हैं, सुरक्षा की भावना, आत्म-रक्षा की चिंता जिसका भाव होता है कि चेतना का सूत्र लगातार सुनिश्चित रूप से चलता रहे, अज्ञात के प्रति घबराहट, अप्रत्याशित और अचिंत्य से उत्पन्न उद्वेग और शायद इस सबके पीछे कोषाणुओं की गहराई मे छिपी हुई यह सहज-भावना काम करती है कि मृत्यु कोई ऐसी वस्तु नहीं जिससे बचा न जा सके और यह मी कि यदि कुछ शर्ते पूरी की जा सकें तो उस पर विजय प्राप्त की जा सकतीं है; यद्यपि यह सत्य है कि स्वयं भय हीं इस विजय के मार्ग में एक भारी बाधा हैं । कारण, हम उसी पर विजय प्राप्त कर सकते हैं जिससे हम डरते नहीं, और जो मृत्यु से डरता है वह पहले से ही मृत्यु के दुरा विजित हो चुका है !
इस भय से कैसे छुटकारा पाया जाये? इसके लिये कई तरीके काम मे लाये जा सकते हैं । किंतु अपने इस प्रयास के प्रारंभ मे हीं कुछ सहायक मूलभूत विचारों को जान लेना आवश्यक है । पहली और अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात यह जान लेना है कि जीवन अविभाज्य और अमर है, बस, उसके रूप अनगिनत होते हैं और वे रूप ही क्षणिक तथा नाशवान होते हैं । यह ज्ञान व्यक्ति को अपने मन मे शिक्षित और स्थायी रूप से जमा लेना चाहिये और यथासंभव अपनी चेतना को उस नित्य जीवन के साथ एकात्म कर लेना चाहिये जो सब रूपों सें स्वतंत्र है , पर फिर भी अपने-आपको सब रूपों में अभिव्यक्त करता है । इससे हमें यह आवश्यक मनोवैज्ञानिक आधार मिल जाता है जहां से समस्या का सामना किया जा सकता है , क्योंकि समस्या तो है हीं न ! आंतरिक सत्ता यदि इतनी पर्याप्त मात्रा में आलोकित हो भी जाये कि वह सब भैयों से अपर उठ जाये, तो भी शरीर के कोषाणुओं में भय छिपा ही रहेगा, अस्पष्ट और स्वत: चालित रूप में, बुद्धि की पकड़ से परे, प्रायः निक्षेतना-सा । इन्हीं अंधेरी गहराइयों मे से उसे ढूंढ निकालना होम, पकड़ना होगा और उस पर चेतना तथा विश्वास का प्रकाश डालना होगा ।
इसलिये, जीवन का नाश तो नहीं होता, रूप अवश्य विघटित हो जाता है और शारीरिक चेतना इसी विघटन से भय खाती हैं । फिर भी, रूप लगातार परिवर्तित होते
रहते हैं और कोई मी वस्तु इस परिवर्तन को प्रगतिशील होने से नहीं रोक सकती । यह प्रगतिशील परिवर्तन हीं इस बात को संभव कर सकता हैं कि मृत्यु अनिवार्य न हों । पर यह कार्य है कठिन, और इसकी शर्ते बहुत कम लोग पूरी कर सकते हैं । इस प्रकार मृत्यु के भय पर विजय प्राप्त करने की विधि व्यक्ति के स्वरूप या उसकी चेतना की अवस्थाओं के अनुसार, भित्र-भित्र होगी । इन विधियां को चार प्रमुख श्रेणियों में बांट सकते हैं और प्रत्येक श्रेणी में अनेक भेद-विभेद भी होंगे; सच तो यह है कि प्रत्येक को हीं अपनी प्रणाली अपने-आप विकसित करनी होगी ।
पहली विधि बुद्धि सें संबंध रखती है । यह कहा जा सकता हैं कि संसार की वर्तमान अवस्था में मृत्यु अनिवार्य है; प्रत्येक शरीर जो जन्म लेता है , एक-न-एक दिन अवश्य हीं मृत्यु को प्राप्त होगा, और करीब-करीब सभी की मृत्यु तभी आती हैं जब उसे आना होता हैं; उसकी खड़ी को न कोई टाल सकता है और न कोई जल्दी ही छाल सकता है । जो उसका आना चाहता हैं उसे कभी-कभी बहुत लंबे समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ती हैं और जो उससे डरता है वह, सब सावधानियां बरतते हुए भी, अचानक उसका ग्रास बन जा सकता हैं । मृत्यु की खड़ी अटल रूप मे नियत की हुई प्रतीत होती हैं, इसके अपवाद बहुत थोड़े-से ही लोग होते हैं जिनमें वे शक्तियां होती हैं जो कि साधारण मानव जाति मे नहीं पायी जाती । तर्क-बुद्धि यह सिखाती हैं कि जिस चीज से बचा नहीं जा सकता उससे डरना मूर्खता है । उपाय एक ही है, वह यह कि इस तथ्य को स्वीकार कर लिया जाये और दिन-प्रतिदिन, क्षण-प्रतिक्षण मनुष्य वही करे जो अच्छे-से-अच्छा कर सकता हैं और इसकी चिंता न करे कि आगे क्या होगा । यह प्रक्रिया उन बुद्धिवादियों के लिये अत्यंत फलदायी होती है जो तर्क-बुद्धि के नियमों के अनुसार काम करते हैं; किंतु जो भावुक लोग अपनी भावनाओं में निवास करते हैं और उन्हीं के द्वारा संचालित होते हैं, उनमें यह कम फलप्रद सिद्ध होगी । निःसंदेह, इन लोगों को दूसरी विधि अपनानी चाहिये, वह हैं आंतरिक खोज की । सब भावों से परे, हमारी सत्ता की नीरव और शांत गहराइयों मे एक प्रकाश सदा प्रज्ज्वलित रहता है, यह अंतरात्मा की चेतना का प्रकाश हैं । इस प्रकाश को खोजों, रस पर एकाग्र होओ; यह तुम्हारे अंदर ही है । दृढ़ संकल्प के द्वारा तुम निश्चय ही यह प्रकाश पाओगे और ज्यों ही तुम उसमें प्रवेश पाओगे, त्यों ही तुम अमरता की अवस्था के प्रति जाग्रत् हो जाओगे । तुम अनुभव करोगे कि तुम सदा हीं जीवित रहे हों और सदा ही जीवित रहोगे; उस अवस्था में तुम अपने शरीर सें पूर्णतया स्वतंत्र हो जाते हो इम्हारा चेतन अस्तित्व उस पर आश्रित नहीं रहता; और यह शरीर तो बहुत-से नाशवान रूपों मे से एक हैं जिनके द्वारा तुमने अपने-आपको अभिव्यक्त किया ! तर मृत्यु विनाश की अवस्था नहीं रहती, वह केवल एक संक्रमण की अवस्था हो जाती है । तत्काल हीं समस्त भय भाग जाता हैं और तुम मुक्त पुरुष की शांत नित्यता के साथ जीवन में आगे बढ़ते हो ।
७५ तीसरी विधि उन लोगों के लिये है जो एक दिव्य अस्तित्व में-जिसे वे अपना भगवान् कहते हैं- श्रद्धा रखते हैं और जिसे वे अपने-आपको उसे समर्पित कर चुके होते हैं । ये लोग पूर्णतया उसी के होते हैं; उनके जीवन की सभी घटनाएं भागवत इच्छा की अभिव्यक्ति होती हैं, इन घटनाएं को वे केवल एक शांत समर्पण-भाव सें हीं नहीं, बल्कि कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार करते हैं, कारण, उन्हें यह विश्वास रहता है कि जो कुछ भी उनके साथ घटता है वह सत्य हो उनके भले के लिये होता है । उन्हें अपने भगवान् में तथा उसके साथ अपने वैयक्तिक संबंध में एक प्रकार का गुह्य विश्वास होता है। उन्होंने अपनी इच्छा पूर्ण रूप से भगवान् की इच्छा को अर्पित कर दी होती है और वे उसके अटल प्रेम और संरक्षण को अनुभव करते हैं, जीवन और मृत्यु की आकस्मिक घटना का उस प्रेम और विश्वास पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । उनके अंदर सदा यह अनुभूति रहती है कि बे पूर्ण आत्म-समर्पण के साथ अपने प्रियतम के चरणों मे प्रणत हैं अथवा उसकी बांहों मे आश्रय लिये हुए हैं और वहां पूर्ण सुरक्षा अनुभव कर रहे हैं । उनकी चेतना मे भय, चिंता या दुःख के लिये जस भी स्थान नहीं होता; इस सबका स्थान एक शांत और हर्षपूर्ण आनंद ले लेता है ।
किंतु प्रत्येक को गुह्यवेत्ता बनने का सौभाग्य प्राप्त नहीं होता ।
अंत मे, कुछ लोग जन्मजात योद्धा होते हैं; जीवन जैसा है उसे वे स्वीकार नहीं कर सकते, अपने अंदर वे एक अमरता के अधिकार का, इस धरती पर ही पूर्ण अमरता के अधिकार का स्पंदन अनुभव करते हैं । उनके अंदर एक प्रकार का सहज-ज्ञान होता है कि मृत्यु बस, एक बुरी आदत है और ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने उसपर विजय प्राप्त करने का निलय लेकर जन्म लिया है । इस पर विजय का अर्थ होता है भयंकर और सूक्ष्म आक्रमणकारियों की सेना के विरुद्ध घोर युद्ध ऐसा युद्ध जो सदा हीं, यह भी कहा जा सकता है कि प्रत्येक क्षण हीं, लड़ना पड़े । इस मोर्चे पर आने का खतरा उसी को उठाना चाहिये जिसमें इसके लिये .अदम्य उत्साह हो । इस युद्ध के कई मोर्चे हैं; यह कई स्तरों पर होता है जो आपस मे एक-दूसरे से मिले-जूले-से तथा एक-दूसरे के पूरक होते हैं ।
पहला मोर्चा हीं काफी भीषण होता है । वह एक सामूहिक मन का युद्ध होता है, एक विशाल तथा अभिभूत और विनाश कर देनेवाले सुझाव के विरुद्ध, ऐसे सुझाव के विरुद्ध जो सहस्रों वर्ष के अनुभव पर आधारित है , प्रकृति के एक ऐसे नियम पर आधारित है जिसका अभीतक कोई अपवाद देखने मे नहीं आता । वह एक ऐसी हठीली मान्यता का रूप धारण कर लेता है : ''सदा ही ऐसा होता रहा है , इससे भिन्न कुछ हों हीं नहीं सकता । मृत्यु अनिवार्य है, और यह आशा करना पागलपन है कि मृत्यु अनिवार्य नहीं होगी । '' यह राय सर्वसम्मत हैं और अभी तक तो किसी बड़े-से- बड़े विद्वान ने भी इसके विरुद्ध अपनी आवाज उठाने का, भविष्य मे आशा देने का जस भी साहस नहीं किया हे । और जहांतक धर्मों की बात है, अधिकतर धर्मों ने तो मृत्यु
७६ के तथ्य को हीं अपनी कार्य-शक्ति का आधार बनाया है और वे कहते हैं कि यह भगवान् की इच्छा है कि मनुष्य मृत्यु को प्राप्त हो, क्योंकि उसीने उसे नश्वर बनाया है । इनमें से बहुत-से तो मृत्यु को उद्धार, मुक्त्ति और कभी-कभी तो पुरस्कार का रूप भी दे देते हैं । वै यह उपदेश देते हैं : 'सर्वोच्च' की इच्छा के आगे नत होकर मृत्यु के विचार को बिना किसी विद्रोह के स्वीकार करो, और तुम्हें शांति और सुख मिलेगा । यह सब होते हुए भी, मन को अपने विश्वास मे अटल रहना होगा, अपना संकल्प अटूट बनाये रखना होगा । किंतु जिसने मृत्यु पर विजय पाने का संकल्प कर लिया हैं उसपर ये सब सुझाव कोई प्रभाव नहीं डालते, उसकी निक्षयता एक गहरे प्रत्यक्ष ज्ञान पर आधारित होती ३ और उस निक्षयता को ये सुझाव छू नहीं सकते ।
दूसरा युद्ध होता है भावों का, यह उस आसक्ति के विरुद्ध युद्ध है जो उसकी अपनी बनायी हुई वस्तुओं के प्रति, अपनी प्रिय वस्तुओं के प्रति होती है । कठिन परिश्रम के परिणामस्वरूप, कभी-कभी तो कठोर प्रयत्न के फलस्वरूप, तुमने अपना घर बनाया होता है, अपना जीवन निर्माण किया होता है, अपना सामाजिक, साहित्यिक, कलात्मक, वैज्ञानिक या राजनीतिक कार्य शिक्षित किया होता है, तुमने एक ऐसे वातावरण की सृष्टि कर लीं होती है जिसके तुम मध्यबिंदु होते हो और जिसपर तुम कम-से-कम उतना हीं आश्रित होते हो जितना कि वह तुमपर होती है । तुम व्यक्तियों के एक बड़े समूह द्वारा, कुटुम्बियों, मित्रों और सहकर्मियों द्वारा गिरे रहते हो और जब तुम अपने जीवन के विषय मे सोचते हो ये सब तुम्हारी विचार-धारा मे उतना हीं स्थान ग्रहण किये होते हैं जितना कि प्रायः तुम स्वयं ग्रहण किये होते हो यहांतक कि यदि ये अचानक तुमसे कु हटा दिये जायें तो तुम अपने-आपको खोया-खोया-सा अनुभव करने लगेगा मानों तुम्हारी अपनी सत्ता का एक बहुत महत्त्वपूर्ण भाग गायब हो गया हो ।
इन सब वस्तुओं का त्याग करने -का प्रश्र ही नहीं है, क्योंकि इनसे, प्रायः अधिकांश मे, तुम्हारी सत्ता के धरातल का, तुम्हारे अस्तित्व के लक्ष्य का निर्माण होता है । किंतु त्याग करना है इनके प्रति अपनी आसक्ति का ताकि तुम इनके बिना रहने में समर्थ अनुभव कर सको, बल्कि, यदि ये तुम्हें छोड़ दें तो तुम अपने लिये नयी परिस्थितियों मे और अशिक्षित समय के लिये नया जीवन फिर से बनाने के लिये तैयार रह सको, क्योंकि यही अमरता का परिणाम है । इस अवस्था का अर्थ होता हैं सब कुछ अधिकतम ध्यान तथा सावधानी से व्यवस्थित और संपन्न कर सकना, किंतु साध हीं कामना और आसक्तिमात्र से मुक्त्ति रहना; कारण, यदि तुम मृत्यु से बचना चाहते हो तो तुम्हें किसी भी नश्वर वस्तु सें बंधना नहीं चाहिये।
भावनाओं के बाद संवेदन आते हैं । यहां लड़ाई निर्मम होती है और शत्रु भयंकर हो जाते हैं । वे तुम्हारी छोटी-से-छोटी दुर्बलता भी देख लेते हैं और वहीं आघात करते हैं जहां तुम असावधान होते हों । यहां विजय अस्थायी होती और वही लड़ाई अनिश्चित
७७ रूप से और बार-बार लड़नी पड़ती हैं । जिस शत्रु को तुम हारा हुआ समह्मते हो वह बार-बार तुम पर चोट करने के लिये उठ खड़ा होता हैं । यहां दृढ़ रूप मे सुधे हुए चरित्र की, अथक सहनशीलता की आवश्यकता होती हैं ताकि समस्त पराजय, निराशा, अस्वीकृति और निरुत्साह का तथा नित्यप्रति के अनुभवों और पार्थिव घटनाओं के परस्पर-विरोध सें उत्पत्र अपरिमित क्लांति का सामना किया जा सके ।
अब हम सबसे अधिक भयंकर युद्ध पर आते हैं, यह है भौतिक युद्ध जो शरीर मे लड़ा जाता हैं; क्योंकि यह बिना दम लिये, बिना विराम के चलता रहता हैं । यह जन्म के साथ शुरू होता हैं और दोनों योद्धाओं-रूपांतर की शक्ति और विलयन की शक्ति-में से किसी एक की पराजय के साथ हीं समाप्त हों सकता है । मैंने जन्म से कहा, क्योंकि ये दोनों गतियां उसी क्षण से संघर्ष रत होती हैं जिस क्षण मनुष्य संसार मे आता है , यद्यपि संघर्ष सचेतन और सुविवेचित रूप बहुत बाद मे लेता है । क्योंकि हर अस्वस्थता, हर रोग, हर विकृति, यहां तक कि दुर्घटनाएं भी विलयन की शक्ति का परिणाम हैं, उसी तरह विकास, सामंजस्यपूर्ण विकास, आक्रमण का प्रतिरोध, रोग- मुक्ति, हर स्वाभाविक क्रिया की ओर लौटना, हर प्रगतिशील सुधार आदि रूपांतर की शक्ति की क्रिया का परिणाम हैं । बाद में चलकर, चेतना के विकास के साथ, जब युद्ध सुविवेचित हो जाता है , तब यह दो परस्पर-विरोधी गतिविधियों के बीच एक प्रचण्ड प्रतियोगिता होती हैं, यह देखने के लिये प्रतियोगिता होती है कि देखें, लक्ष्य तक कौन पहले पहुंचता है , मृत्यु या रूपांतर । इसका अर्थ हैं एक अंतहीन प्रयास, एक पुनरुद्धार शक्ति का आवाहन करने के लिये सतत एकाग्रता और इस शक्ति के प्रति कोषाणुओं मे ग्रहणशीलता की वृद्धि । हास और विनाश की शक्तियों के विरुद्ध पग-पग पर, एक-एक बिंदु पर युद्ध करना और हर उस चीज को जो प्रकाश देनेवाली, शुद्ध करनेवाली और स्थिर करनेवाली अपर उठती हुई प्रवृत्ति को प्रत्युत्तर देने की क्षमता रखती हैं, ऐसी हर चीज को उसकी पकडू से छीन लेना । यह एक अंधकारपूर्ण और हठी संघर्ष है जिसका अधिकतर कोई प्रत्यक्ष परिणाम नहीं दिखायी देता, किन्हीं आशिक और सदा अनिखित विजयों का कोई बाहरी चिह्न नहीं दिखायी देता-क्योंकि हमेशा यहीं लगता है कि जो काम किया गया है उसे दोबारा करना होगा । बहुधा, जब एक पग आगे बढ़ता हैं तो उसके लिये कहीं और पीछे हटना होता है। एक दिन जो काम पूरा हो जाता है दूसरे दिन उसी को उधेड़ जा सकता है । वस्तुतः, शिक्षित और स्थायी विजय तभी हो सकतीं बे जब वह संपूर्ण हों और इस सबमें समय लगता है , बहुत समय ! वर्ष-पर-वर्ष बड़ी कठोरता के साथ चलते चले जाते हैं और विरोधी शक्तियों का बल बढ़ाते जाते हैं ।
इस सारे समय चेतना खाई मै संतरी की तरह खड़ी रहती है : तुम्हें डटे रहना चाहिये, हर कीमत पर डटे रहना चाहिये, भय के कंपन के बिना, जागरूकता में कमी लाये बिना, जो लक्ष्य सिद्ध करना हैं उस पर, और ऊपर से आनेवाली प्रेरणा और
७८ सहारा देनेवाली सहायता पर अटल श्रद्धा के साथ डटे रहना चाहिये । विजय सबसे अधिक सहनशील को ही मिलेगी ।
मृत्यु के भय पर विजय पाने का एक और मी तरीका हैं, लेकिन वहांतक इतने कम लोगों की पहुंच हैं कि यहां उसका उल्लेख केवल एक सूचना के रूप में किया जाता हैं । वह है जानबूझकर और सचेतन रूप से मृत्यु के क्षेत्र में जीते जी प्रवेश करना, और फिर उस लोक से लौटकर भौतिक शरीर में वापिस आना, और पूर्ण ज्ञान के साथ भौतिक सत्ता के जीवन-क्रम को फिर से अपना लेना । लेकिन इसके लिये तुम्हें दीक्षित होना चाहिये ।
('बुलेटिन', फरवरी १९५४)
७९ 'मृत्यु के भय पर विजय प्राप्त करने के चार साधन'-विषयक
लेख के अंतिम अनुच्छेद पर किये गये
प्रश्नों का उत्तर
जो भी प्रश्र किये गये हैं वे सव इस एक हीं प्रश्र मे ढाले जा सकते हैं : वह कौन- सा ज्ञान है या अनुशासन है जो निर्भयतापूर्वक मृत्यु का सामना करने की सामर्थ्य प्रदान करता है?
अभी तक यहां ज्ञान की इस प्रणाली के विषय मे, जो साथ-हीं-साथ कार्य की प्रणाली भी है, कुछ नहीं कहा गया है, क्योंकि इस ज्ञान का अध्ययन तथा अभ्यास सबके हाथों मे नहीं सौंपा जा सकता । गुह्य शक्तियों के बारे मे बात करने का अधिक मूल्य नहीं है; मनुष्य को उन्हैं अनुभव मे लाना चाहिये । और यह अनुभव केवल उन क्षमताओं की ही मांग नहीं करता जो केवल बहुत क्रम लोगों को प्राप्त हैं, वरन उस मनोवैज्ञानिक विकास की भी मांग करता है जिसे बहुत कम लोग प्राप्त कर सकते हैं । आधुनिक जगत् मे यह ज्ञान कदाचित् ही वैज्ञर्ग़नेक माना जाता हैं, फिर भी यह वैज्ञानिक है, क्योंकि यह उन सब शर्तों को पूरा करता है जो सामान्यत: विज्ञान मे आवश्यक मानी जाती हैं । यह ज्ञान की एक ऐसी पद्धति है जो कुछ सद्धांतों के अनुसार व्यवस्थित की गयी है; यह कुछ यथार्थ क्रियाओं का अनुसरण करती हैं और व्यक्ति समान अवस्थाओं मे समान हीं परिणाम प्राप्त करता है । साथ ही, यह एक विकसनशील ज्ञान । मनुष्य इसके अध्ययन में जुट सकता है और इसे नियमित और युक्तिपूर्ण ढंग से विकसित भी कर सकता है, बिलकुल उन दूसरे विज्ञानों की तरह, जिन्हें आज का संसार विज्ञान मानता है । केवल एक भेद है कि यह अध्ययन उन वास्तविकताओं के साध संबंध रखता है जो अत्यधिक भौतिक संसार की वस्तुएं नहीं हैं । यदि तुम यह ज्ञान सीखना चाहते हो तो तुम्हारे पास विशेष इंद्रियां होनी चाहिये । क्योंकि इसके क्षेत्र साधारण इंद्रियों से परे हैं । ये विशेष इंद्रियां मनुष्य के अंदर सुप्तावस्था मे विद्यमान हैं । जिस प्रकार हमारा एक भौतिक शरीर है, उसी प्रकार अन्य सूक्ष्मतर शरीर भी हैं और इनकी भी अपनी इंद्रियां हैं; ये इंद्रियां हमारी भौतिक इंद्रियों से कहीं अधिक सूक्ष्म, यथार्थ तथा शक्तिशाली हैं । क्योंकि हमारी शिक्षा इस क्षेत्र के साथ संबंध रखने की अभ्यस्त नहीं है, स्वभावत: हीं ये इंद्रियां साधारणतया विकसित नहीं होती और जिन जगतों मे ये कार्य करती हैं वे हमारी सामान्य चेतना की पहुंच से परे हैं । पर बच्चे, सहज-स्वाभाविक रूप मे हीं, अधिकतर इसी जगत् मे निवास करते हैं, वे वहां उन सब प्रकार की वस्तुओं की देखते हैं जो उनके लिये भौतिक वस्तुओं के समान हीं वास्तविक हैं; वे उनके विषय मै बातें भी करते हैं, किंतु उनसे प्रायः यहीं कहा जाता ३ कि वे मूर्ख अथवा झूठे हैं, कारण, वे उन विषयों के
८० बारे मे बातें करते हैं जिनका दूसरों को कुछ अनुभव नहीं, पर जो उनके अपने लिये उतने ही सच्चे, गोचर और वास्तविक हैं जितनी कोई और चीज जिसे सब देख सकते हैं । बच्चे, सोते या जागते हुए जो स्वप्न देखते हैं वे भी बड़े सजीव होते हैं और उनके जीवन के लिये अत्यंत महत्त्व रखते हैं । अत्यधिक मानसिक विकास के बाद हीं ये शक्तियां बच्चों मे मंद पडू जाती हैं तथा कभी-कभी विलीन होकर समाप्त भी हो जाती हैं । फिर भी कुछ ऐसे सौभाग्यशाली लोग भी हैं जो सहज रूप मे विकसित आंतरिक इंद्रियों के साथ हीं जन्मे हैं, और इस बात का कोई कारण नहीं कि ये इंद्रियां जाग्रत् न रहें या विकसित न हों । यदि उन लोगों की, ठीक समय पर, किसी ऐसे मनुष्य के साथ भेंट हो जाये जिसे यह ज्ञान प्राप्त है और जो उनकी सूक्ष्म इंद्रियों की विधिवत् शिक्षा मे उन्हें सहायता पहुंचा सके, तो वे गुह्य जगतों के अध्ययन और खोजों के लिये रोचक यंत्र बन सकते हैं ।
सभी युगों मे, पृथ्वी पर कुछ ऐसे इक्के-दुक्के व्यक्ति या छोटे समुदाय हुए हैं जो अति प्राचीन परंपरा के रक्षक थे तथा जिन्द्रोंने अपने अनुभवों द्वारा उस परंपरा की पुष्टि की थीं; ये इस प्रकार के विज्ञान का अभ्यास भी किया करते थे । वे ऐसी आत्माओं को खोजते थे जिन्हें विशेष रूप से यह शक्ति प्राप्त हो, और उन्हें आवश्यक शिक्षा देते थे । साधारणतया ये समुदाय थोड़ा-बहुत गुप्त या रहस्यमय जीवन व्यतीत करते थे, क्योंकि साधारण लोग इस प्रकार की क्षमताओं और क्रियाओं के प्रति बहुत असहिष्णु होते हैं, ये उनकी बुद्धि से परे की चीजें होती हैं तथा उन्हें भयभीत कर देती हैं । तब भी मानव इतिहास मे ऐसे महान् युग हुए हैं जब इस विद्या की दीक्षा देनेवाली संस्थाएं स्थापित हुई और उन्हें मान्यता भी मिली; लोग उन्हें उपयोगी समझते तथा उनका मान करते थे । इस प्रकार की संस्थाएं प्राचीन मिस्र देश, प्राचीन कैल्डिया और भारतवर्ष मै तथा आशिक रूप मे यूनान और रोम मे भी थीं; मध्यकालीन यूरोप मे गी ऐसे विद्यालय थे जो गुह्यविद्या की शिक्षा देते थे; किंतु इन्हें बडी सावधानी सें अपने- आपको गुप्त रखना पड़ता था, क्योंकि ईसाई धर्म, जो कि राजधर्म था, इनका पीछा करता तथा इन्हें दंडित करता था । और यदि दुर्भाग्यवश यह पता लग जाता कि कोई खी या पुरुष इस गुह्यविद्या का अभ्यास करता वे तो वह चिता पर चढ़ा दिया जाता था और उसे जादूगर समझकर जीवित जला दिया जाता था । अब यह ज्ञान लुप्तप्राय हो गया है; बहुत ही कम लोग अब इस विद्या को जानते हैं । किंतु ज्ञान के साथ- साथ, असहिष्णुता भी चली गयी है । यह सत्य है कि हमारे समय मे अधिकतर शिक्षित लोग इस विद्या को स्वीकार करना नहीं चाहते या इसे कोरी कल्पना कहकर दबा देते हैं, यहांतक कि, इसे ढोंग समह्मते हैं, ताकि वे अपने अज्ञान और अपनी उस व्याकुलता को अपने से छुपा सकें जो वे अनुभव करते यदि उन्हें एक ऐसी शक्ति की वास्तविकता को स्वीकार करना पड़ता जिसके ऊपर उनका कोई वश नहीं है । साथ ही उन लोगों मे भी जो उसे अस्वीकार नहीं करते, अधिकतर को ऐसी चीजों से कोई
८१ विशेष प्रेम नहीं होता; ये उन्हें उलझन और चिंता मे डाल देती हैं । किंतु अंत में उन्हें यह मानना पड़ा कि यह कोई अपराध नहीं है । जो लोग गुह्यविद्या का अभ्यास करते हैं वे अब चिता पर नहीं चढ़ाये जाते और न हीं बंदीगृह मे डाले जाते हैं । केवल एक बात हैं कि अब, चूंकि छुपाने की आवश्यकता नहीं रही, बहुत-से लोग दावा करने लगे हैं कि यह सान उन्हें प्राप्त है, किंतु ऐसे बहुत कम लोग हैं जो इसे सचमुच जानते हों । उस रहस्य से लाभ उठाकर, जो पहले गुह्यविद्या को आच्छादित किये हुए था, कुछ महत्त्वकांक्षी लोग, जिन्हें सत्य असत्य की कोई चिंता नहीं होती, रहस्यी- करण और ठगी के साधन के रूप में इसका प्रयोग करने लगे हैं । किंतु उन्हें देखकर ही इस विद्या के विषय में अपना विचार बना लेना उचित नहीं, क्योंकि वे तो इसे जानने का झूठा दावा करते हैं । मानव कार्य-व्यवहार के सभी क्षेत्रों में नीम-हकीम तथा ठग विद्यमान हैं; किंतु उनके पाखंड को एक ऐसी सच्ची विद्या पर लांछन नहीं लगाना चाहिये जिसके प्राप्त होने का वे झूठा अभिमान करते हैं । इसी कारण, इस विद्या की उन्नति के महान् युगों मे, जब ऐसे विद्यालय विद्यमान थे और जहां इसका अभ्यास होता था, जो कोई इस विद्या को सीखना चाहता था उसे प्रविष्ट होने से पहले बहुत लंबे समय तक, कमी-कभी तो वर्षों तक, अत्यंत कठोर, दोहरे अनुशासन, अर्थात् आत्म-विकास तथा आत्म-संयम का अनुसरण करना पड़ता था । एक ओर तो अभीक्ष्ण के आशयों की सच्चाई तथा निःस्वार्थता, उसके उद्देश्यों की पवित्रता, आत्म- विस्मृति और अहंनिषेध की उसकी योग्यता, त्याग की भावना तथा निरहंकारता के संबंध मे यथासंभव निक्षय प्राप्त किया जाता था, - इस प्रकार उसकी अभीप्सा की उच्चता तथा श्रेष्ठता प्रमाणित हो जाती थी, - और दूसरी ओर प्रार्थी को कई परीक्षाओं मे से गुजरना पड़ता था जिसका उद्देश्य यह निक्षित करना होता था कि क्या उसकी क्षमताएं पर्याप्त हैं और वह उस विद्या का अभ्यास, जिसके लिये वह अपने-आपको समर्पित करना चाहता हैं, बिना किसी खतरे के कर सकता है? ये परीक्षाएं विशेषतया व्यक्ति की लालसाओं और कामनाओं पर संयम, एक अचल शांति की स्थापना और सबसे बढ़कर पूर्ण निर्भयता पर आग्रह करती थीं, क्योंकि इस कार्य मे पूर्ण निर्भयता सुरक्षा की आवश्यक शर्त हैं । गुह्यविद्या, अपने एक पक्ष मे, एक प्रकार की रसायनविद्या है जो आंतरिक विस्तार में शक्तियों की क्रीड़ा तथा जगतों एवं वैयक्तिक आकारों की रचना में प्रयुक्त की जाती हैं । और जिस प्रकार भौतिक रसायनविद्या मे विशेष पदार्थों का व्यवहार खतरे से खाली नहीं हैं, उसी प्रकार गुह्य जगतों में भी कुछ विशेष शक्तियों का प्रयोग करने तथा उनसे संपर्क रखने मे खतरा है, यह तभी अहानिकर हों सकता हैं जब व्यक्ति शांत और अविचल रह सके ।
एक अन्य पक्ष से देखें तो गुह्य विद्या एक अन्वेषक के लिये अज्ञात प्रदेशों की खोज तथा अनुसंधान के समान हैं जिनके नियम तथा विधि-विधान वह प्रायः कष्ट ८२ उठाकर ही सीखता हैं । कुछ प्रदेश तो नये जिज्ञासु के लिये काफी भयावह भी होते हैं, वह अपने-आपको नये और अदृष्ट संकटों से घिरा पाता हैं । फिर भी, उनमें से अधिकतर संकट उतने सत्य नहीं हैं जितने काल्पनिक, और जो लोग उनका सामना निडरता से करते हैं उनके लिये वे अपनी अधिकांश वास्तविकता खो देते हैं ।
प्रत्येक अवस्था मे, सभी युगों मे, यह परामर्श दिया जाता रहा हैं कि किसी ऐसे गुरु से शिक्षा लेनी चाहिये जो अनुसरणीय पथ दिखा सके, संकटों से सावधान कर सके, चाहे वे काल्पनिक हों या नहीं, और समय पडूने पर रक्षा कर सके ।
इसलिये यहां इस विद्या की कुछ और बारीकियों के विषय में कहना कठिन है, सिवाय इसके कि गुह्यविद्या के अध्ययन का अनिवार्य आधार सत्ता की अनेक अवस्थाओं तथा आंतरिक जगतों के मूर्त एवं गोचर सत्य की स्वीकृति है, जो चार या अनेक आयामोंवाले व्योमों के सिद्धांत का मनोवैज्ञानिक प्रयोग है ।
इस प्रकार गुह्यविद्या की परिभाषा यों की जा सकती हैं : यह विद्या, आकारों के जगत् में, उस चीज का मूर्त विषयीकरण हैं जिसकी शिक्षा आध्यात्मिक भ्रनुशासन शुद्ध मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण सें देते हैं । इन दोनों को, विकास और समग्र कर्म की पूर्णता के लिये, एक-दूसरे का पूरक होना चाहिये । आध्यात्मिक अनुशासन के बिना गुह्य ज्ञान एक ऐसा उपकरण हैं जो यदि अपवित्र हाथों मे पडू जाये तो उस व्यक्ति के लिये जौ उसे प्रयोग मे लाता हैं तथा अन्यों के लिये भी संकटपूर्ण हों जाता हैं । उधर गुह्यविद्या के बिना आध्यात्मिक ज्ञान के बाह्य प्रभावों मे यथार्थता और निश्चितता का अभाव रहता है; यह केवल आत्मनिष्ठ जगत् मे हीं सर्वशक्तिमान है । ये दोनों जब कर्म मे, चाहे वह आंतरिक हो या बाह्य, संयुक्त हो जाते हैं, तो अदम्य हो जाते हैं और अतिमानसिक शक्ति की अभिव्यक्ति के योग्य यंत्र बन जाते हैं ।
('बुलेटिन', अप्रैल १९५४) ८३ |